Gangubai Kathiawadi: गंगूबाई काठियावाड़ी का अंत हिंदी फिल्मों के सबसे बोरिंग और जीरो-एक्शन वाले ‘द एंड’ में लिखा जाएगा. यहां न प्री-क्लाइमेक्स है और न क्लाइमेक्स.
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पूरा नाम है, गंगूबाई जगजीवनदास काठियावाड़ी. जब किसी फिल्ममेकर को लगे कि वह इतिहास को नए सिरे से लिख रहा है, तब वह संजय लीला भंसाली की तरह गंगूबाई काठियावाड़ी जैसी फिल्म बनाता है. जबकि उसका काम यह नहीं है.
फिल्म में भंसाली 1950 के दशक और गंगूबाई की कहानी को मिक्स करके कुछ ऐसा रचते हैं, जिसका हमारे इतिहास के व्यापक दायरे से कोई लेना-देना नहीं है. यहां कोई ऐसी घटना भी नहीं है, जिसने समय के पहिये को गति दी हो या नया मोड़ पैदा किया हो.
गंगूबाई काठियावाड़ी भले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलकर वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने की वकालत करती है, लेकिन भंसाली अपनी फिल्म के माध्यम से यह बात कहने का साहस भी नहीं कर पाते.
वह सिर्फ गंगूबाई की छोटी-सी कहानी के कंधे पर अपनी सिनेमाई-भव्यता का प्रदर्शन करते हैं. मगर यह उनकी पिछली फिल्मों से कमतर है.
Gangubai Kathiawadi गंगूबाई काठियावाड़ी टोटल फिल्मी मामला
हालांकि तमाम भव्यता के बीच फिल्म में विषय के स्तर पर इतना ही ग्लैमर है कि कोई कमाठीपुरा की गलियां देख ले. कोठों और वहां की लड़कियों के जीवन की झलक पा ले. यहां भंसाली की सेट-डिजाइनिंग और लाइटिंग रंगमंच की तरह मालूम पड़ते हैं.
सच ये है कि गंगूबाई की त्रासदी से ज्यादा त्रासद और खूनी कहानियां कमाठीपुरा में दफन मिलेंगी. इस लिहाज से गंगूबाई काठियावाड़ी टोटल फिल्मी मामला है. जिसे सिर्फ इस उत्सुकता में देखा जा सकता है कि हमारे समय के बड़े मेकर भंसाली ने कैसी फिल्म बनाई है और आलिया भट्ट गंगूबाई काठियावाड़ी की भूमिका में कैसी लगी हैं.
वेश्यावृत्ति के धंधे और वेश्याओं के जीवन पर आज भी हिंदी में जो न भूल पाने वाली फिल्म है, वह निर्देशक श्याम बेनेगल की ‘मंडी’ है. 1983 में जब यह फिल्म आई तब भंसाली बीस साल के थे और इस फिल्म के दस साल बाद आलिया भट्ट पैदा हुई थीं.
गंगूबाई काठियावाड़ी Gangubai Kathiawadi (आलिया भट्ट) ऐसी किशोरी-युवती की कहानी है, जो प्रेमी के साथ घर से भागकर मुंबई आई. उसका सपना था फिल्मों में हीरोइन बने. देवानंद उसे सबसे ज्यादा पसंद था. लेकिन प्रेमी उसे कमाठीपुरा में शीला मौसी (सीमा पाहवा) के कोठे पर बेच गया. इसके बाद यह लड़की अगले पंद्रह साल तक उन गलियों से बाहर नहीं निकली.
वह यहां तीखे तेवरों से साथ बड़ी होती हुई, शीला मौसी के मरने पर कोठे की लीडर बन जाती है. लेकिन वह जिस्मफरोशी के धंधे में मजबूरन उतरी या उतार दी गई लड़कियों का दर्द समझती है. वह न केवल हर तरह से उनकी मदद करती है, बल्कि इस बात के लिए भी पुलिस-प्रशासन-नेताओं और समाज से संघर्ष करती है कि कमाठीपुरा को इज्जत मिले.
वेश्याओं के बच्चों को पढ़ने-लिखने-स्कूल जाने का हक मिले. वह आंख झुका कर नहीं, नजर से नजर मिलाकर सबसे बात करती है.
इस बीच गंगूबाई काठियावाड़ी Gangubai Kathiawadi को अपने समय के माफिया डॉन रफीक लाला (अजय देवगन) का स्नेह मिलता है. डॉन उसे बहन मानता है.
डॉन के दम पर वह कमाठीपुरा में कोठों की व्यवस्था संभालने वाले संगठन का चुनाव लड़ती और जीतती है. अवैध शराब का भी धंधा करती है क्योंकि जो कोठों पर आएगा, वह शराब तो पिएगा ही. फिर वह बाहर से क्यों शराब लाए.
फिल्म के अंतिम दौर में गंगूबाई एक बार सार्वजनिक सभा में भाषण देते हुए समाज को आईना दिखाने की कोशिश करती है और दूसरी बार दिल्ली जाकर नेहरू जी से मिल कर उन्हें वेश्याओं की समस्याओं से रू-ब-रू कराती है.
गंगूबाई की इस उपलब्धि के साथ फिल्म खत्म हो जाती है.
किरदार से न्याय नहीं करती दिखी फिल्म
गंगूबाई काठियावाड़ी Gangubai Kathiawadi का अंत हिंदी फिल्मों के सबसे बोरिंग और जीरो-एक्शन वाले ‘द एंड’ में लिखा जाएगा. यहां न प्री-क्लाइमेक्स है और न क्लाइमेक्स. अब सवाल यह कि अंत में दर्शक को क्या मिला.
आप सोच में पड़ जाते हैं कि क्या भंसाली ने यह फिल्म गंगूबाई काठियावाड़ी की कहानी कहने के लिए बनाई या आलिया भट्ट को शानदार अभिनेत्री साबित करने के लिए.
जबकि गंगूबाई की कहानी में भंसाली न तो सिनेमाई तेवर पैदा कर सके और न इक्का-दुक्का दृश्यों को छोड़ आलिया कहीं गंगूबाई के किरदार से न्याय करती दिखीं. गंगूबाई काठियावाड़ी भंसाली की मजबूत फिल्मोग्राफी में कमजोर कड़ी है.
अगर आप भंसाली की फिल्म-मेकिंग देखने के शौकीन हैं, तब तो इसे देख सकते हैं. अन्यथा सिनेमा का मजा आपको यहां नहीं मिलेगा. स्क्रिप्ट के स्तर पर भी यह बायोपिक टुकड़ा-टुकड़ा है.
कुछ संवाद जरूर अच्छे हैं और कहीं-कहीं पंच भी हैं. अजय देवगन सिर्फ नाम के लिए हैं और विजय राज का रंग यहां नहीं जमता.
जो एक्टर छाप छोड़ते हैं वह हैं, सीमा पाहवा, इंदिरा तिवारी और जिम सरभ. फिल्म में भंसाली का संगीत है और इस बार उनका यह काम भी औसत है.
गंगूबाई काठियावाड़ी Gangubai Kathiawadi भंसाली की ऐसी फिल्म है, जो उन्होंने दर्शकों के लिए कम और आत्मसंतोष के अधिक बनाई है.
आप कह सकते हैं कि अपनी फिल्मों में ढेरों रंग बिखेरने वाले भंसाली ने इस बार पर्दे पर सिर्फ सफेदा उड़ाया है.