Masur ki Kheti: मसूर रबी सीजन में बोई जाने वाले फसल है तथा इसकी बुआई का समय मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर (कार्तिक) तक है. देर से बुआई करने पर बीमारियों की संभावनाएं अत्यधिक बढ़ जाती है.
मसूर में पाए जाने वाले पोषक तत्त्व, प्रोटीन – 24, लोहा, कॉपर विटामिन -बी 1 विटामिन -बी 6 विटामिन – बी 5 जस्ता रेशा इत्यादि.
भूमि का चयन
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ऐसी भूमि जिसका पी. एच. 6.5 – 7.5 के बीच हो तथा दोमट भूमि इस फसल के लिए उपयुक्त मानी जाती है. यह फसल जलभराव के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है अतः जल निकास के प्रबंध को ध्यान में रखते हुए भूमि का चयन करना चाहिए.
Masur ki Kheti: खेत की तैयारी –
खरीफ की फसल की कटाई के बाद एक बार मिट्टी पलट हल से जुताई करनी चाहिए तथा दो से तीन बार देशी हल अथवा कल्टीवेटर से जुताई करने के पश्चात पटेला चला देना चाहिए.
एक बात ध्यान में रखे की जुताई हमेशा दिन में मुख्यतः सुबह के समय करें जिससे भूमि में पाए जाने वाले कीटों को पक्षी खा जाए.
जलवायु एवं बुवाई का समय –
इस फसल पर प्रतिकूल मौसम का असर अत्यधिक पड़ता है. अत्यधिक पाला और ठण्ड इसके उत्पादन पर बुरा प्रभाव डालते हैं. बीज अंकुरण के समय तापमान 25-28 डिग्री होना चाहिए.
मसूर रबी सीजन में बोई जाने वाले फसल है तथा इसकी बुआई का समय मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर (कार्तिक) तक है. देर से बुआई करने पर बीमारियों की संभावनाएं अत्यधिक बढ़ जाती है.
बीज दर एवं बुवाई की विधि –
मसूर की बुवाई कतारों में करनी चाहिए तथा 2 कतारों के बीच की दूरी 30 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. पौधे से पौधे की दूरी 8 से 10 सेंटीमीटर रखें. कतारों से बुआई करने का लाभ यह है कि शस्य क्रिया करने में आसानी होती है.
समय से बुआई करने की लिए बड़े दाने वाली प्रजातियों की बीज दर 50 से 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखें तथा छोटे दाने वाली प्रजातियों की बीज दर 35 से 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होती है.
यदि बुआई देर से करते हैं तो बीज की दर 5 से 10 ज्यादा प्रयोग करें एवं कतार से कतार की दूरी घटाकार 25 सेंटीमीटर रखनी चाहिए.
मृदा उपचार-
मसूर में मृदा जनित रोगों से बचने की लिए गर्मियों में गहरी जुताई अवश्य करनी चाहिए जिसे सभी हानिकारक सूक्ष्म जीव सूरज के तेज प्रकाश से नष्ट हो जाएं.
100 किलोग्राम गोबर की अच्छी प्रकार से सड़ी हुई खाद में 2 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी अथवा ट्राइकोडर्मा हरजीनुम को खाद में मिलाकर 7 दिनों तक अँधेरे में ढक कर रखें एवं बुआई से पूर्व खेत में अच्छी तरह से मिला दें.
यह कवक अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीवों को नष्ट कर देता है.
बीज शोधन –
2 ग्राम थिरम एवं 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम 2:1 की अनुपात में मिलाकर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर छाया में सुखाएं.
इसके पश्चात 5 ग्राम रिजोबियम एवं 5 ग्राम पीएसबी तथा 5 ग्राम गुड़ को थोड़े पानी में मिलाकर बीज की ऊपर छिड़कें तथा हल्के हाथों से मिलाकर पुनः छाया में सुखाएं, जिससे इसकी एक परत बीज की ऊपर पड़ जाए.
खाद एवं उर्वरक –
100 से 300 कुंतल प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी हुई खाद प्रयोग करें तथा उर्वरकों का प्रयोग मिटटी की जाँच की उपरांत की गए अनुशंसा की आधार पर ही करनी चाहिए.
मसूर के लिए जल प्रबंधन –
अगर मसूर की फसल धान की कटाई के बाद ली गए है तो पलेवा करने की जरूरत नहीं पड़ती है, परन्तु यदि भूमि में नमी नहीं है तो पलेवा करने के बाद बुआई करनी चाहिए.
चूँकि मसूर कम पानी चाहने वाली फसलों में से एक है अतः इसके लिए एक सिंचाई काफी है. मसूर में सिंचाई बौछारी विधि से करें.
सभी दलहनी फसलों में सिंचाई फूल आने से पहले करनी चाहिए यदि सिंचाई फूल आते समय की गए तो सभी फूल गिर जाते हैं और पौधों में दाने नहीं बनते जिसे उत्पादन में भारी कमी आती है.
खरपतवार रोकथाम –
मसूर की फसल में बुवाई के 30 से 35 दिन बाद क्रांतिक अवस्था आती है जिसमे खरपतवारों का प्रकोप बहुत अधिक होता है अतः इस समय इनका नियंत्रण करना बहुत ही महत्वपूर्ण है.
बछुवा, चटरी-मटरी, सेंजी, कटेली, इत्यादि
इन खरपतवारों की नियंत्रण के लिए हाथ से इन्हें निकालकर गड्ढे में दबाकर खाद बनाने में प्रयोग करना चहिये. उक्त खरपतवारों की नियंत्रण के लिए फ्लूकोरालीन बुआई की पूर्व खेत में मिलाना चाहिए
पेंडीमैथलीन खरपतवार नासी बुआई की बाद तथा खरपतवार जमने से पहले 3 से 3.5 ली. प्रति हेक्टेयर खेत में स्प्रे करना चाहिए.
रोग एवं कीट नियंत्रण –
मसूर में लगने वाली प्रमुख बीमारियां निम्नलिखित हैं
उकठा –
यह रोग मसूर और अन्य दलहनी फसलों का प्रमुख रूप से लगने वाला रोग है. यह भूमि जनित रोग है अतः बीज शोधन एवं रोग के प्रति प्रतिरोधी ही इसका प्रमुख रोग प्रबंधन हैं.
उक्त रोग से संक्रमित पौधे अचानक ही सूख कर मर जाते हैं. इस रोग के प्रति प्रतिरोधी प्रजातियों उपर्युक्त सारणी में दिये गए हैं.
मूल विदलन –
यह भी एक तरह का भूमि जनित रोग है जिसमे पौधे की जड़ें सड़ जाती हैं तथा पौधा सूख जाता है. इसके रोकथाम की लिए बीज शोधन सबसे अच्छा उपाय है तथा इससे बचाव के लिए रोग प्रतिरोधक प्रजातियां उगानी चाहिए.
मसूर में लगने वाले प्रमुख कीट
माहू –
यह कीट हरे रंग का होता है एवं बहुत ही छोटे आकर का होता है. यह पत्तियों से रस चूसता है और उसमें वायरस जनित बीमारियां फैलाता है. इसके नियंत्रण की लिए रोगोर 1उस, 1ली पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए.
भुनगा –
यह भूरे रंग का कीट होता है जो बहुत ही छोटे आकर का होता है. यह भी पत्तियों एवं तनों से रस चूसता है और विभिन्न प्रकार की बीमरियां पौधों में फैलाता है.
इसके नियत्रण के लिए खेतों में येलो मैजिक कार्ड लगाते हैं तथा साइपरमैथरीन 25ः कीटनाशक का प्रयोग करते हैं. साइपरमैथरीन कीटनाशक 80-100 उस प्रति हेक्टेयर की लिए पर्याप्त है.
सूंडी –
यह एक ऐसा कीट है जो हर तरह की फसल को खाता है तथा यह दलहनी फसलों में लगने वाला एक प्रमुख कीट है जो पत्तियों और फल दोनों को खाता है.
इसके नियंत्रण के लिए खेतों में फेरोमोन ट्रैप लगाने चाहिए जिससे नर तितलियाँ आकर्षित होकर ट्रैप में फंस जाते हैं और हम उन्हें पकड़कर नष्ट कर देते हैं जिससे कि आगे की जनन क्रिया रुक जाती है
इनकी संख्या कम हो जाती है. खेतों की बीच बीच में डंडियां लगा देनी चाहिए जिससे चिड़ियाँ उन पर आ कर बैठे और इन कीटों को खा जाये.
सूंडियों की नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफॉस 1उस, 1ली0 पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए.
कटाई-
मसूर की कटाई हंसिया की मदद से सुबह के समय करनी चाहिए अन्यथा फली के दाने निकलकर गिरते हैं, जिससे उपज में कमी आती है.
मड़ाई –
मसूर की मड़ाई डंडों से पीटकर या फिर बैलों को दाएं घुमाकर की जाती है और इसकी ओसाई पंखे की सहायता से करके दाने को भूंसे से अलग कर लेते हैं.
आज की समय में मल्टीपर्पज थ्रेसर का प्रयोग प्रचलित है यद्यपि थ्रेशर की गति इतनी रखते हैं जिससे दाना टूट न जाये.
लेखक:
देवेश यादव’, रवि कुमार, सैयद कुलसूम फातिमा जाफरी
शोध छात्र, चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर
शोध छात्रा, आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, अयोध्या