Sesame Farming: बहुत से किसान भाइयो को इस मुनाफे वाली खेती के बारे मे बताया नही जाता है जिससे होने वाला बम्पर मुनाफे की खेती को छोड़ देते है जिससे किसानो को बहुत अधिक निकसन भी होता है ।
यह तिल क खेती है जिसके बारे मे हमने इसे पूरी तरह विस्तार से बताया है इसे कम बोना चाइए और इसकी किस्मों के बारे मे बिही बताया है जिससे की आपकी जमीन के अनुसार इन किस्मों को अपने खेतो मे लगाकर बहुत अधिक अच्छा मुनाफा कमा सकते है ।
तिलहन की यह फसल बहुत ही कम जगहो पर होने के कारण यह बहुत ही महंगी होती इस कारण हम आप सभी किसानो को यह बता रहे है की आप भी इस फसल को अपने खेतो मे लगाकर बहुत अच्छा मुनाफा कमा सकते है ,
यह मुनाफा आपको 1 से 2 महीनो के अंदर आपको लखपति बना सकता है , लेकिन इसके बारे मे पहले आपको जानकारी होना बहुत ही जरूरी है इस लिए हमने आपके लिए यह पोस्ट बनाई है , देखे-
Sesame Farming: फसल उत्पादन में रखें इन बातों का ध्यान, होगी बंपर कमाई
Table of Contents
तिलहन फसलों में तिल का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। तिल का उत्पादन साल में तीन बार लिया जा सकता है। तिल किसानों के लिए नकदी फसल है जिसकी बाजार मांग हर समय बनी रहती है।
सर्दियों में तो इसकी मांग सबसे अधिक रहती है। तिल से कई प्रकार के मिठाई, गजक, लड्डू आदि बनाया जाता है। इसके अलावा तिल से तेल निकाला जाता है जिसकी बाजार मांग सबसे अधिक है।
इसे देखते हुए किसानों के लिए तिल की खेती काफी लाभकारी है। यदि कुछ बातों का ध्यान रखा जाए तो किसान तिल का बेहतर उत्पादन प्राप्त कर ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं।
आइए आज हम द हिन्द मीडिया के माध्यम से किसानों को तिल की खेती की जानकारी दे रहे हैं। तो आइए जानते हैं तिल की खेती की उन्नत तकनीक के बारे में।
तिल खाने से होने वाले फायदें / लाभ
- तिल के बीज में उच्च गुणवत्ता का प्रोटीन एवं आवश्यक अमीनो अम्ल खासकर मिथियोनिन मौजूद है जो वृद्धावस्था को रोकने में सहायक है।
- तिल में लिनोलिक अम्ल, विटामिन ई,ए,बी,बी-2 एवं नायसिन खनिज एवं केल्सियम तथा फास्फोरस पाया जाता है जो कि स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
- तिल के तेल में 85 प्रतिशत असंतृप्त फैटी एसिड है जिससे कोलेस्ट्रॉल को घटाने की तथा हृदय की कोरोनरी रोग रोकने में सहायक है।
- तिल के तेल को तेलों की रानी (क्वीन ऑफ ऑयल्स) कहा जाता है क्योंकि इसमें त्वचा रक्षक तथा अन्य प्रसाधन के गुण मौजूद है।
- तिल दांत के रोगों में लाभकारी है। रोज सुबह 10 ग्राम काला तिल चबा-चबाकर अच्छी तरह खाने से मसूढ़े स्वस्थ एवं दांत मजबूत होते हैं।
- तिल से आंखों की रोशनी बढ़ाने, कफ, आर्थराइटिस, सूजन, दर्द पीड़ा को कम करता है।
- तिल के तेल की मालिश से मुंहासे, चर्म रोग में लाभ मिलता है। तेल में नीम की पत्तियां मिला कर प्रयोग करने से चर्म रोग दूर होता है।
देश में कहां-कहां होती है तिल की खेती
देश में तिल की खेती महाराष्ट्र, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडू, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व तेलांगाना में होती है। इनमें सबसे अधिक तिल का उत्पादन उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में किया जाता है।
तिल की खेती के लिए उन्नत किस्में
तिल की खेती के लिए कई उन्नत किस्में हैं जिनसे अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। ये उन्नत किस्में इस प्रकार से हैं-
टी.के.जी. 308
इस किस्म का विमोचन वर्ष 2008 में किया गया था। यह किस्म 80-85 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म से 600-700 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इस किस्म में 48-50 प्रतिशत तेल की मात्रा पाई जाती है। तिल की ये किस्म तना एवं जड़ सडऩ रोग के प्रति सहनशील है।
जे.टी-11 (पी.के.डी.एस.-11)
तिल की किस्म जे.टी-11 (पी.के.डी.एस.-11) को भी वर्ष 2008 में विमोचित किया गया था। ये किस्म 82-85 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इससे 650-700 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
इसमें तेल की मात्रा 46-50 प्रतिशत होती है। इसका दाना हल्के भूरे रंग का होता है। तिल की ये किस्म मैक्रोफोमिना रोग के लिए सहनशील है। ये किस्म गीष्म कालीन खेती के लिए उपयुक्त मानी गई है।
जे.टी-12 (पी.के.डी.एस.-12)
तिल की इस किस्म को 2008 में विमोचित किया गया। यह किस्म 82-85 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म से 650-700 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
इस किस्म में तेल की मात्रा 50-53 तक पाई जाती है। तिल की से किस्म मैक्रोफोमिना रोग के लिए प्रति सहनशील सहनशील है। तिल की ये किस्म गीष्म कालीन खेती के लिए उपयुक्त मानी गई है।
जवाहर तिल 306
तिल की जवाहर 306 किस्म का विमोचन 2004 में किया गया। यह किस्म 86-90 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्म से 700-900 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
इसमें तेल की मात्रा 52 प्रतिशत होती है। यह किस्म पौध गलन, सरकोस्पोरा पत्ती घब्बा, भभूतिया एवं फाइलोड़ी रोग के लिए सहनशील है।
जे.टी.एस. 8
तिल की इस किस्म का विमोचन वर्ष 2000 में किया गया। ये किस्म 86 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म से 600-700 किलोग्राम प्रति हैैक्टेयर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
इसमें तेल की मात्रा 52 प्रतिशत पाई जाती है। तिल की ये किस्म फाइटोफ्थोरा अंगमारी, आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा तथा जीवाणु अंगमारी रोग के प्रति सहनशील है।
टी.के.जी. 55
तिल की इस किस्म को वर्ष 1998 विमोचित किया गया। ये किस्म 76-78 दिन में तैयार हो जाती है। इस किस्म से 630 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
इसमें 53 प्रतिशत तेल की मात्रा पाई जाती है। तिल की ये किस्म फाइटोफ्थोरा अंगमारी, मेक्रोफोमिना तना एवं जड़ सडऩ रोग के प्रति सहनशील है।
तिल की खेती का उचित समय
तिल की खेती साल में तीन बार की जा सकती है। खरीफ में इसकी बुवाई जुलाई माह में होती है। अद्र्ध रबी में इसकी बुवाई अगस्त माह के अंतिम सप्ताह से लेकर सितंबर माह के प्रथम सप्ताह तक कर देनी चाहिए।
ग्रीष्मकालीन फसल के लिए इसकी बुवाई जनवरी के दूसरे सप्ताह से फरवरी के दूसरे सप्ताह तक की जा सकती है।
तिल की खेती के लिए जलवायु व मिट्टी
तिल के लिए शीतोषण जलवायु अच्छी रहती है। ज्यादा बरसात या सूखा पडऩे पर इसकी फसल अच्छी नहीं होती है। वहीं बात करें भूमि की तो इसके लिए हल्की भूमि तथा दोमट भूमि अच्छी होती है।
यह फसल पी एच 5.5 से 8.2 तक की भूमि में उगाई जा सकती है। इसके अलावा इसे बलुई दोमट से काली मिट्टी में भी उगाई जाती है।
तिल की खेती के लिए खेत की तैयारी
तिल की खेती के लिए खेत की तैयारी करते समय इस बात का ध्यान रखें कि खेत में खरपतवार बिलकुल भी नहीं हो। खेत से खरपतवार पूरी तरह से निकालने के बाद खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें।
इसके बाद दो-तीन जुताई कल्टीवेटर या देशी हल से करके खेत में पाटा लगाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लें। वहीं 80 से 100 कुंतल सड़ी गोबर की खाद को आखिरी जुताई में मिला दें।
तिल की खेती के लिए बीज दर और बीजोपचार
छिडक़वा विधि से तिल की बुवाई के लिए 1.6-3.80 प्रति एकड़ बीज की मात्रा रखनी चाहिए। वहीं कतारों में बुवाई के लिए सीड ड्रील का प्रयोग करना चाहिए जिसके लिए बीज दर घटाकर 1-1.20 किग्रा प्रति एकड़ बीज दर पर्याप्त है।
मिश्रित पद्धति में तिल की बीजदर एक किग्रा प्रति एकड़ से अधिक नहीं होनी चाहिए। रोगों से बचाव के लिए 2.5 ग्राम थीरम या कैप्टान प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधन करना चाहिए।
तिल की बुवाई का तरीका / विधि
आमतौर पर तिल की बुवाई छिटकवां विधि से की जाती है। छिटकवां विधि से तिल की बुवाई करने पर निराई-गुड़ाई में समस्या आती है। इसलिए सबसे अच्छा ये हैं कि इसकी बुवाई कतारों में की जाए।
इससे एक ओर निराई-गुड़ार्ई का काम आसान हो जाता है तो दूसरी ओर उपज भी ज्यादा प्राप्त होती है। बीजों का समान रुप से वितरण हो इसके लिए बीज को रेत (बालू), सूखी मिट्टी या अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ 1: 20 के अनुपात में मिलाकर बोना चाहिए।
कतार से कतार और पौधे से पौधे के बीच की दूरी 30×10 सेमी रखते हुए लगभग 3 सेमी की गहराई पर बीजों की बुवाई करनी चाहिए।
तिल की खेती में खाद एवं उर्वरक प्रयोग
खेत की तैयारी के समय 80 से 100 कुंतल सड़ी हुई गोबर की खाद अंतिम जुताई के समय मिला देना चाहिए। इसके साथ ही साथ 30 किलोग्राम नत्रजन, 15 किलोग्राम फास्फोरस तथा 25 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए।
नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस,पोटाश एवम गंधक की पूरी मात्रा बुवाई के समय आधार खाद के रूप में तथा नत्रजन की आधी मात्रा प्रथम निराई-गुडाई के समय खड़ी फसल में देना चाहिए।
तिल की खेती में सिंचाई कार्य
वर्षा ऋतु में तिल की फसल को सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती है। यदि बारिश नहीं हो तो आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए।
जब तिल की फसल 50 से 60 प्रतिशत तैयार हो जाए तब एक सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। यदि बारिश न तो आवश्यतानुसार सिंचाई करनी चाहिए।
तिल की खेती में निराई-गुड़ाई कार्य
तिल की फसल में खरपतवारों का प्रकोप बना रहता है। इसके लिए फसल की प्रथम निराई-गुड़ाई का काम बुवाई के 15 से 20 दिन के बाद करना चाहिए। दूसरी बार 30 से 35 दिन के बाद निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।
इस समय निराई-गुडाई करते समय थिनिंग या विरलीकरण करके पौधों के आपस की दूरी 10 से 12 सेंटीमीटर कर देनी चाहिए। वहीं खरपतवार नियंत्रण के लिए एलाक्लोर 50 ई.सी. 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर बुवाई के बाद दो-तीन दिन के अंदर प्रयोग करना चाहिए।
तिल की फसल में रोग नियंत्रण के उपाय
तिल की फसल को सबसे अधिक नुकसान फिलोड़ी और फाईटोप्थोरा झुलसा रोग से होता है। फिलोड़ी की रोकथाम के लिए बुवाई के समय कूंड में 10जी. 15 किलोग्राम या मिथायल-ओ-डिमेटान 25 ई.सी 1 लीटर की दर से प्रयोग करना चाहिए
तथा फाईटोप्थोरा झुलसा की रोकथाम हेतु 3 किलोग्राम कापर आक्सीक्लोराइड या मैन्कोजेब 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकतानुसार दो-तीन बार छिडक़ाव करना चाहिए।
तिल की फसल में कीट नियंत्रण उपाय
तिल की फसल में पत्ती लपेटक और फली बेधक कीट का प्रकोप अधिक होता है। इन कीटों की रोकथाम के लिए क्यूनालफास 25 ई.सी. 1.25 लीटर या मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के दर से छिडक़ाव करना चाहिए।
तिल की कटाई
तिल की पत्तियां जब पीली होकर गिरने लगे तथा पत्तियां हरा रंग लिए हुए पीली हो जाए तब समझना चाहिए की फसल पक कर तैयार हो गई है। इसके बाद कटाई पेड़ सहित नीचे से करनी चाहिए।
कटाई के बाद बंडल बनाकर खेत में ही जगह जगह पर छोटे-छोटे ढेर में खड़े कर देना चाहिए। जब अच्छी तरह से पौधे सूख जाएं तब डंडे अथवा छड़ की सहायता से पौधों को पीटकर या हल्का झाडक़र बीज निकाल लेना चाहिए।
प्राप्त उपज
अच्छी तरह से फसल प्रबंध होने पर तिल की सिंचित अवस्था में 400-480 किग्रा. प्रति एकड़ और असिंचित अवस्था में उचित वर्षा होने पर 200-250 किग्रा प्रति एकड़ उपज प्राप्त होती हैं।
तिल का बाजार भाव
जनवरी 2022 में बाजार में तिल का न्यूनतम मूल्य- 9025 रुपए है तथा अधिकतम मूल्य 9700 है जबकि इसका मॉडल रेट 9100 रुपए है।
तिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2022
केंद्र सरकार की ओर से वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए तिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 7307 रुपए तय किया गया है। इस बार सरकार ने तिल के एमएसपी में 452 रुपए की बढ़ोतरी की है। बता दें कि पिछले वित्तीय वर्ष 2020-21 में तिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 6855 था।